पूजा का स्वरूप व उद्देश्य पूजा का स्वरूप जिनपूजा ,
गहन आत्मीयता से भरकर अपने पद्धेय के प्रति आदर सम्मान प्रकट करने का एक सुखद एवं पवित्र क्रिया है । वह काम , क्रोध , लोभ आदि विकारी भावों से चेतना को मुक्त करने की एक प्रक्रिया है । वह त्याग और संयम के सूप द्वारा व्यर्थ पदार्थों को फटकार कर अलग करने और सारभूत तत्त्व को ग्रहण करने का प्रक्रिया है । पूजा हमारी आंतरिक पवित्रता को उद्घाटित करने का अनुष्ठान है । पूजा की प्रक्रिया द्रव्य और भाव रूप से दो तरह से समान होती है । जल , चंदन आदि पवित्र अष्टद्रव्य द्वारा जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करना द्रव्य पूजा कहलाती है , एवं मन की अशुद्ध प्रवृत्ति को रोककर जिनेन्द्र भगवान का गुणगान करना भाव पूजा है । दोनों पूजा एक साथ होनी चाहिए । द्रव्य पूजा के बिना मात्र भाव पूजा का अभाव है । अर्थात् द्रव्य के बिना गृहस्थ की भाव पूजा मात्र नहीं हो सकती । उसी प्रकार भाव पूजा के बिना द्रव्य पूजा कार्यकारी नही है । पूजा करते समय ही नहीं बल्कि पूजा के उपरांत भी दिनभर मन , वाणी और कर्म में पवित्रता बनी रहे यही पूजा का उद्देश्य है । पूजा को वैयावृत्य या सेवा भी कहा गया है । भगवान के समान गुणों को प्राप्त करने की भावना रखना ही भगवान की सच्ची सेवा है । अत : पूजा के दौरान भगवान के समान बनने की भावना रखनी चाहिए । श्रावक स्वयं भोजन करने से पूर्व पूजा के योग्य सामग्री तैयार करके जिनबिम्ब के सम्मुख अर्पित करता है , इसलिए पूजा को श्रावक के अतिथि संविभाग नामक व्रत के अंतर्गत रखा गया है । पूजा करते समय हम पाँच - पापों से मुक्त होकर पंचपरमेष्ठी के गुणगान में लीन हो जायें । इसलिए पूजा को श्रावक के सामायिक नामक शिक्षाव्रत में भी शामिल किया गया है । पूजा करते समय हम एकाग्र होकर पंचपरमेष्ठी वाचक विभिन्न पदों मंत्रों के माध्यम से भगवान जिनेन्द्र के स्वरूप का स्मरण करते हैं , इसलिए पूजा में एक तरह के स्वरूप का चिंतवन और अपना आत्मावलोकन दोनों साथ - साथ चलते रहते हैं । अत : पूजा को स्वाध्याय भी कहा गया है । इस तरह पूजा आत्मविकास में सहयोगी अनेक गुणों का समन्वित रूप है । अधिक समय तक एकाग्र होकर मंत्र का जाप करना कठिन है लेकिन भाव - भक्ति में तन्मय होकर जिनबिम्ब के सम्मुख दीर्घ - काल तकपूजा करना आसान है , इसलिए सद्गृहस्थ को अशुभ कार्यों से बचकर अधिक समय तक धर्मध्यान में लगाए रखने में जिनपूजा अत्यंत उपकारी है । पूजा के दौरान जिनबिम्ब के सम्मुख अष्ट - द्रव्य समर्पित किए जाते हैं । सर्वप्रथम भरत चक्रवती ने भगवान ऋषभदेव की पूजा अष्ट - द्रव्य से की थी , ऐसा उल्लेख मिलता है । भगवान का गुणगान करते हुए सजगतापूर्वक क्रम - क्रम से एक एक द्रव्य समर्पित करने से मन , वाणी और शरीर तीनों को शुभ कार्य में व्यस्त रखना आसान हो जाता है । अत : अष्टद्रव्य का महत्त्व स्वतः सिद्ध है । अष्टकर्म से मुक्त होने की पवित्र भावना से अष्ट द्रव्य अर्पित किए जाते हैं । दान और पूजा के बिना श्रावकधर्म नहीं हो सकता । पूजा हमारी दिनचर्या का मंगलाचरण है , पूजा आत्मशुद्धि का हेतु है , पूजा अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा है , जहाँ तक कि पूजा अन्तहीन प्रक्रिया है जो मुक्ति तकचलती है अर्थात परम्परा से मोक्ष का कारण है । पूजन का उद्देश्य जो कर्म से परतंत्र है , वह पूजक है और जो कर्म से स्वतंत्र है वह पूज्य है । अपने आराध्य देव ने जिस पुरुषार्थ को करके आदर्शमय स्थान प्राप्त किया है उसी का अनुसरण भक्त यथाशक्ति करना चाहता है , और उस आदर्श देव को आत्मसात करने । के लिये भक्त जिन - जिन पद्धतियों का आलम्बन लेता है , उनमें सबसे सरल एवं प्राथमिक साधन होने के कारण गुण - अनुराग , भक्ति और पूजा आदि के समर्पित भाव है । इसके लिए पूजक द्रव्य पूजा का अवलम्बन लेता है । पूजन करने का उद्देश्य जिनेन्द्रदेव को प्रसन्न करना नहीं होता है क्योंकि वे वीतरागी होने के कारण न तो किसी से प्रसन्न होते हैं और न ही अप्रसन्न होते हैं । पूजन के माध्यम से हम जिनेन्द्र देव के गुणों को प्राप्त करने की भावना भाते हैं । भगवान का गण - गान करने से पूजक को यह सहज ही समझ में आ जाता है कि वह स्वयं भी अनंत गणों की खान है और उसमें भी परमात्मा बनने की शक्ति है । मगर राग , द्वेष व मोह के कारण वह अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर पाता है । पूजा करते समय पूजक के भाव कभी - कभी वीतरागी स्वभाव की ओर झुक जाते हैं और यही पूजन का मुख्य उद्देश्य है । देवपूजा में शुभ राग की मुख्यता रहने से पूजक अशुभ राग रूपी तीव्र कषाय आदि पाप परिणति से बचा रहता है तथा सांसारिक विषय - वासना के संस्कार भी । क्षीण हो जाते हैं ।