पाठ - 15
जिनवाणी स्तुति - 01
सांची तो गंगा यह वीतराग वानी ,
अविच्छिन्न धारा निज धर्म की कहानी ॥ टेक ॥
जामें अति ही विमल , अगाध ज्ञानपानी ।
जहाँ नहीं संशयादि , पंक की निशानी । । 1 । ।
सप्तभंग जहँ तरंग , उछलत सुखदानी ।
संतचित मरालवृन्द , रमैं नित्य ज्ञानी ॥ 2 ॥
जाके अवगाहनतें , शुद्ध होय प्रानी । । '
भागचन्द ' निहचै , घटमाहिं या प्रमानी ॥ 3 ॥
जिनवाणी स्तुति 02
चरणों में आ पड़ा हूँ , हे द्वादशांग वाणी ।
मस्तक झुका रहा हूँ , हे द्वादशांग वाणी ॥ टेक ॥
मिथ्यात्व को नशाया , निज तत्त्व को बताया ।
आपा पराया भासा , हो भान के समानी ॥ 1 ॥
षड् द्रव्य को बताया , स्याद्वाद को जताया ।
भव - फन्द से छुड़ाया , सच्ची जिनेन्द्र वाणी । । 2 । ।
रिपु चार मेरे मग में , जंजीर डाले पग में ।
ठाडे हैं मोक्ष मग में , तकरार मोसों ठानी ॥ ३ ॥
दे ज्ञान मुझको माता , इस जग से तोई नाता । ।
होवे सुदर्शन साता , नहीं जग में तेरी सानी ॥ 4 ॥