पाठ - 8
मेरी - भावना
( जुगलकिशोर मुख्तार युगवीर कृत )
जिसने रागद्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया ।
सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया ।
बुद्ध , वीर , जिन , हरि , हर , ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो ।
भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो । । 1 । ।
विषयों की आशा नहिं , जिनके साम्य भाव धन रखते हैं ।
निज पर के हित साधन में जो , निशदिन तत्पर रहते हैं ।
स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या , बिना खेद जो करते हैं ।
ऐसे ज्ञानी साधु जगत के , दुख समूह को हरते हैं । । 2 ॥
रहे सदा सत्संग उन्हीं का , ध्यान उन्हीं का नित्य रहे ।
उन्हीं जैसी चर्या में यह , चित्त सदा अनुरक्त रहे ।
नहीं सताऊँ किसी जीव को , झूठ कभी नहीं कहा करूँ ।
परधन वनिता पर न लुभाऊं , संतोषामृत पिया करूँ । । 3 ॥
अहंकार का भाव न रक्खू , नहीं किसी पर क्रोध करूँ ।
देख दूसरों की बढ़ती को , कभी न ईर्ष्या - भाव धरूँ ॥
रहे भावना ऐसी मेरी , सरल सत्य व्यवहार करूँ ।
बने जहाँ तक इस जीवन में , औरों का उपकार करूं । । 4 ।
मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे ।
दीन - दुखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे ॥
दुर्जन कर - कु मार्ग रत्तों पर , क्षोभ नहीं मुझको आवे ।
साम्यभाव रक्खू में उन पर , ऐसी परिणति हो जावे ॥ 5 ॥
गुणीजनों को देख हृदय में , मेरे प्रेम उमड़ आवे ।
बने जहां तक उनकी सेवा , करके यह मन सख पावे । ।
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं , द्रोह न मेरे उर आवे ।
गुण ग्रहण का भाव रहे नित , दृष्टि न दोषों पर जावे । 6 । ।
कोई बुरा कहो या अच्छा , लक्ष्मी आवे या जावे ।
लाखों वर्षों तक जीऊँ या , मृत्यु आज ही आ जावे । ।
अथवा कोई कै सा ही भय , या लालच देने आवे । ।
तो भी न्याय - मार्ग से मेरा , कभी न पग डिगने पावे ॥ 7 ॥
होकर सुख में मग्न न फूलें दुख में कभी न घबरावें । ।
पर्वत नदी श्मशान - भयानक , अटवी से नहिं भय खावें । ।
रहे अडोल - अकम्प निरन्तर , यह मन दृढ़तर बन जावे ।
इष्टवियोग अनिष्टयोग में , सहनशीलता दिखलावे । 8 । ।
सुखी रहें सब जीव जगत के , कोई कभी न घबरावे ।
बैर - पाप अभिमान छोड़ जग , नित्य नये मंगल गावे ॥
घर - घर चर्चा रहे धर्म की , दुष्कृत - दुष्कर हो जावे ।
ज्ञानचरित उन्नत कर अपना , मनुज जन्म फल सब पावे । । 9 ॥
ईति - भीति व्यायै नहिं जग में , वृष्टि समय पर हुआ करे ,
धर्म - निष्ठ होकर राजा भी , न्याय प्रजा का किया करे ।
रोग - मरी - दुर्भिक्ष न फैले , प्रजा शान्ति से जिया करे ।
परम अहिंसा धर्म जगत में , फैल सर्वहित किया करे । । 10 ॥
फैले प्रेम परस्पर जग में , मोह दूर ही रहा करे ।
अप्रिय कटक - कठोर शब्द नहिं , कोई मख से कहा करे ।
बनकर सब ' युगवीर ' हृदय से , देशोन्नति रत रहा करे ।
वस्तु स्वरूप विचार खुशी से , सब दुख संकट सहा करे । । 11 ॥