प्र . 1 चन्दन लगाने के नौ स्थान कौन - कौन से हैं ।
उत्तर: अनामिका अंगुली से नौ स्थानों पर चंदन लगायें
१ . मस्तक - मान कषाय की शान्ति हेतु ।
२ . हृदय - क्रोध कषाय की शान्ति हेतु ।
३ . कंठ - मायाचारी से रहित सरल हित - मित - प्रिय वचन कंठ से निकलने हेतु ।
४ . कर्ण - कर्कश वचन भी कर्ण से टकराकर मधुर मिष्ट लगे ।
५ . दोनों बाजु में - मेरी शक्ति प्रभुध्यान व भक्ति में लगे इस भावना से ।
६ . दोनों कलाई में - मेरे हाथ किसी को गिराने में नहीं बल्कि उठाने में कारण बनें और सदा जिनेन्द्र प्रभु की पूजन करते रहें ।
७ . नाभि - नाभि जो ऊर्जा का संचालन करती है । मेरी ऊर्जा उर्ध्वगमन करें ताकि ध्यान और साधना मय जीवन बने । ऊर्जा के अधोगमन से वासना और उर्ध्वगमन से साधना होती रहे ।
प्र . २ अभिषेक किसे कहते हैं ।
उत्तर शुद्ध प्रासुक ( गर्म ) जल से भगवान के ऊपर जल धारा करना अभिषेक कहलाता है ।
प्र . ३ अभिषेक के कितने भेद हैं ।
उत्तर चार भेद हैं
१ . जन्माभिषेक - जिसे सौधर्मेन्द्र तीर्थकर बालक को पाण्डक शिला पर ले । जाकर करता है ।
२ . राज्याभिषेक - जिसे तीर्थंकर कुमार को राज्य तिलक के समय किया जाता है ।
३ . दीक्षाभिषेक - यह तीर्थंकर के वैराग्य होने पर दीक्षा लेने के पूर्व किया जाता है ।
४ . प्रतिमाभिषेक - साक्षात् जिनेन्द्र देव का अभिषेक तो होता नहीं है , लेकिन प्रतिमा का अभिषेक अनादिकाल से होता आ रहा है । सभी प्राचीन आचार्यों ने प्रतिमा अभिषेक का उल्लेख किया है , अकृत्रिम चैत्यालयों में निरन्तर प्रतिदिन प्रतिमा अभिषेक होता है । अतः प्रतिमा की ऊर्जा तथा स्वरूप के सम्पूर्ण गुण , द्रव्य , पर्याय की पावनता भक्त के द्रव्य , गुण , पर्याय को भी पवित्र करें । ऐसे भाव अभिषेक करने का होता है । अभिषेक से प्राप्त गंधोदक इतना पावन होता है , कि मुनिराज भी अपने मस्तिक पर धारण करते हैं । अत : बिना कुतर्क के श्रद्धा भक्तिपूर्वक अभिषेक कर गंधोदक धारण करना चाहिये ।
प्र . ४ कई लोग कुतर्क करते हैं , कि प्रतिमा की सफाई के लिए अभिषेक किया जाता है ।
उत्तर यह कुतर्क निराधार एवं असत्य है , क्योंकि अकृत्रिम चैत्यालयों में कभी धूल नहीं होती। फिर भी वहाँ पर प्रतिदिन अभिषेक एकभवातारी क्षायिक सम्यक् दृष्टि सौधर्म इन्द्र करता है ।
प्र . ५ अभिषेक करने का मूल प्रयोजन क्या है ?
उत्तर भगवान जिनेन्द्र का स्वरूप जानकर हम रागादि विकारी परिणामों की हीनता के साथ आत्मविशुद्धि पूर्वक अपने पाप कर्म को समूल नष्ट करने के लिये शुद्ध जल के द्वारा अभिषेक करते हैं ।
प्र . ६ अभिषेक की विधि बताइये ?
उत्तर सर्वप्रथम मंजनस्नान करके मंगलाष्टक पढ़कर , आचार्य माघनन्दी कृत अभिषेक पाठ में वर्णित विधि के अनुसार अभिषेक की क्रिया करना चाहिये ।
अभिषेक और जिनपूजा - जिनत्व के अत्यंत समीप आने का उपक्रम है । जिनालय मानों एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है । जहाँ जिनबिम्ब के सम्मुख जाकर हम अभिषेक और पूजन के द्वारा स्वयं को निर्मल बनाने का प्रयोग करते हैं । अभिषेक जा का एक अंग है । अभिषेक पूर्वक ही पूजा संपन्न होती है । प्रासुक जल की धारा जनबिम्ब के ऊपर इस तरह प्रवाहित करना जिससे कि जिनबिम्ब पूरी तरह । अभिसिंचित हो सके - यह अभिषेक कहलाता है ।अभिषेक की परंपरा अनादि - निधन है । चतुर्निकाय के देव आष्टाह्निका पर्व में नन्दीश्वर द्वीप में जाकर चारों दिशाओं के अकृत्रिम चैत्यालयों में क्रमश : दो - दो प्रहर करके चौबीसों घंटे भगवान का अभिषेक एवं पूजा करते हैं । यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि सौधर्म आदि इन्द्र और सभी देवगण विदेह क्षेत्र में सदा विद्यमान रहने वाले तीर्थंकरों के कल्याणक एवं साक्षात् दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी अकृत्रिम चैत्यालयों में भक्तिभाव से अभिषेक करने जाते हैं और स्वयं को धन्य मानते हैं । अभिषेक के दौरान जिनबिम्ब के अत्यंत निकट आने और भाव विभोर होकर भगवान का स्पर्श करने का सुखद अवसर प्राप्त होता है जिससे भावों में बड़ी निर्मलता आती है । मन आहलादित हो जाता है और जीवन की सार्थकता मालूम पड़ती है । अभिषेक का उद्देश्य बताते हुए लिखा गया है कि हे भगवन् ! आप सहज ही परम पवित्र हैं । आपकी पवित्रता के लिए मैंने अभिषेक नहीं किया । मैंने तो स्वयं को रागद्वेष रूप मलिनता से मुक्त करने के लिए आपके पवित्र बिंब पर जलधारा प्रवाहित की है और क्षण भर को समस्त पापाचरण छोड़ करके मानों आपका साक्षात् दर्शन करने का पुण्य अर्जित किया है । इस तरह अभिषेक आत्म - निर्मलता के लिए किया गया एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान है । अभिषेक के दौरान उच्चरित मंत्रों से मंत्रित और जिनविम्ब के स्पर्श से पवित्र हुआ सुगंधित जल गंधोदक कहलाता है । जिसे अपने संचित पापों का क्षय करने की उत्तम भावना से नेत्र और ललाट पर धारण किया जाता है ।
प्र . ७ जिन प्रतिमा अभिषेक का प्रचलन कबसे है ?
उत्तर अनादिकाल से है क्योंकि तीर्थकर के गज्जकल्याणक एवं अकृत्रिम चैत्यालय अनादिनिधन हैं । अनादिकाल से चतुर्निकाय के देव आष्टाह्निका पर्व में नंदीश्वरद्वीप जाकर अभिषेक एवं पूजन करते हैं । इस प्रकार अभिषेक की परम्परा अनादिनिधन है ।