Home noncss || देव शास्र गुरु पूजा || (केवल-रवि-किरणों )-कविश्री युगलजी बाबू जी - Dev Shastra Pooja - Kavi Yugal Kishor Ji || देव शास्र गुरु पूजा || (केवल-रवि-किरणों )-कविश्री युगलजी बाबू जी - Dev Shastra Pooja - Kavi Yugal Kishor Ji Author - jainism January 18, 2024 || देव शास्र गुरु पूजा ||कविश्री युगलजी बाबू जीकेवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर|उस श्री जिनवाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन||सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण|उन देव-परम-आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदनओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)।ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)।ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)।इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया|यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया||मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर-ममता में अटकाया हूँ |अब निर्मल सम्यक्-नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ ||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है|अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है||प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है|संतप्त-हृदय प्रभु! चंदन-सम, शीतलता पाने आया है||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।उज्ज्वल हूँ कुंद-धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किंचित् भी|फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही||जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, नश्वर वैभव को अपनाया|निज शाश्वत अक्षय निधि पाने, अब दास चरण रज में आया||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।यह पुष्प सुकोमल कितना है! तन में माया कुछ शेष नहीं|निज-अंतर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं||चिंतन कुछ फिर सम्भाषण कुछ, क्रिया कुछ की कुछ होती है|स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ, जो अंतर-कालुष धोती है||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।अब तक अगणित जड़-द्रव्यों से, प्रभु! भूख न मेरी शांत हुर्इ|तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही||युग-युग से इच्छा-सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ|पंचेन्द्रिय-मन के षट्-रस तज, अनुपम-रस पीने आया हूँ||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा|झंझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा||अतएव प्रभो! यह नश्वर-दीप, समर्पण करने आया हूँ|तेरी अंतर लौ से निज, अंतर-दीप जलाने आया हूँ||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।जड़-कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या-भ्रांति रही मेरी|मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी||यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ|निज-अनुपम गंध-अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है|मैं आकुल-व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है||मैं शांत निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचरि मेरी|यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलंं निर्वपामीति स्वाहा।क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है|काषायिक भाव विनष्ट किये, निज-आनंद अमृत पीता है||अनुपम-सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है|दर्शन-बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरिहन्त-अवस्था है||यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु! निज-गुण का अर्घ्य बनाऊँगा|और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अरिहन्त-अवस्था पाऊँगा||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।----जयमाला----(ज्ञानोदय छंद)भव-वन में जी भर घूम चुका, कण-कण को जी भर-भर देखा |मृग-सम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ||(1)झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएँ |तन जीवन यौवन अस्थिर हैं, क्षण भंगुर पल में मुरझाएँ ||(2)सम्राट् महाबली सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या |अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ||(3)संसार महा-दु:खसागर के, प्रभु! दु:खमय सुख-आभासों में |मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कंचन-कामिनि-प्रासादों में ||(4)मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते |तन-धन को साथी समझा था, पर वे भी छोड़ चले जाते ||(5)मेरे न हुए ये मैं इनसे, अतिभिन्न अखंड निराला हूँ |निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम-रस पीनेवाला हूँ ||(6)जिसके श्रृंगारों में मेरा, यह महँगा जीवन घुल जाता |अत्यन्त अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता ||(7)दिन-रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता |मानस वाणी अरु काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता ||(8)शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अंतस्थल |शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अंतर्बल ||(9)फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें |सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ||(10)हम छोड़ चलें यह लोक तभी, लोकांत विराजें क्षण में जा |निज-लोक हमारा वासा हो, शोकांत बनें फिर हमको क्या ||(11)जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नयतम सत्वर टल जावे |बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर मोह विनश जावे ||(12)चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी |जग में न हमारा कोर्इ था, हम भी न रहें जग के साथी ||(13)(देव-स्तवन)चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जावे |मुरझार्इ ज्ञान-लता मेरी, निज-अंतर्बल से खिल जावे ||(14)सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा-ज्वाला |परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला ||(15)तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय-सुख की ही अभिलाषा |अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुख की भी परिभाषा ||(16)तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे |अतएव झुकें तव चरणों में, जग के माणिक-मोती सारे ||(17)(शास्त्र-स्तवन)स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं |उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं ||(18)(गुरु-स्तवन)हे गुरुवर! शाश्वत सुख-दर्शक, यह नग्न-स्वरूप तुम्हारा है |जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्श कराने वाला है ||(19)जब जग विषयों में रच-पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो |अथवा वह शिव के निष्कंटक- पथ में विष-कंटक बोता हो ||(20)हो अर्ध-निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों |तब शांत निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिंतन करते हो ||(21)करते तप शैल नदी-तट पर, तरु-तल वर्षा की झड़ियों में |समतारस पान किया करते, सुख-दु:ख दोनों की घड़ियों में ||(22)अंतर-ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ |भव-बंधन तड़-तड़ टूट पड़ें, खिल जावें अंतर की कलियाँ ||(23)तुम-सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियाँ |दिन-रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ ||(24)हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम! प्रणाम |हे शांति-त्याग के मूर्तिमान, शिव-पंथ-पथी गुरुवर! प्रणाम ||ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।Artist - कविश्री युगलजी बाबू जी Tags donenoncss Facebook Twitter Whatsapp Newer Older