श्री सुधासागर महाराज तुम्हारे चरणों में बलि बलि जाऊँ ।
शिवपथ पर चलते राही का शत - शत अभिनन्दन मैं गाऊँ । ।
तिष्ठ तिष्ठ आओ मम मन में मुझको सुखी बना जाओ ।
भव वन की इन गतियों में तुम दिनकर बन तम हर जाओ । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्र ।
अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमनीन्द्र ।
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्र ।
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
पाँचों इन्द्रियों के विषयों में मद मस्त रहा खुद को भूला ।
लवणाकर से इस भरे जगत में राग - द्वेष कर मैं फला । ।
अतएव सुधा रस पीने को हाथों में जल को लाया है ।
इस जन्म - जरा के मेटन को चरणों में अर्पित करता है । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
संसार बढ़ाकर ही मैंने अपने को अग्नि में डाला ।
जिसमें जल - जलकर मैने ही अपना निज रूप मिटा डाला । ।
अत एव सुधारस वर्षाकर क्रोधानल को अब शान्त करो ।
मेरा भवताप मिटाकर तुम इस चन्दन को स्वीकार करो । ।
ॐ हः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
इस भव समुद्र से तरने को रत्नत्रय ही यह नौका है ।
जो खण्ड - खण्ड हर पहलू को इक रूप बनाने मौका है ।
उस अक्षय पद को ही पाने में अक्षत तुम्हें चढ़ाता है ।
प्रत्याशी उस पद का बनने में सुधा मांगने आया है ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपापनि स्वाहा ।
यह मोह वारूणी पी अनादि से मतवाला बन सदा फिरा ।
चारों गतियों में फिर - फिर कर मैं इच्छा ज्वाला में सदा गिरा ।
अब कामबाण विध्वसं हेतु ये मनसिज चरणों में लाया ।
इस मन का शासक स्वयं बनूं श्री सुधा - सिन्धु तुम दो छाया । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पणि निर्वपामीति स्वाहा ।
अब तक अगणित व्यंजन खाकर में तन की भूख मिटाता हूँ ।
पर शान्त कभी न हुई तनिक मैं देख इस पछताता है । ।
नैवेद्य समर्पित करके अब इस भव में गोता ना खाऊँ ।
इस क्षुधा रोग से बचने को मैं सुधा वैद्य को ही ध्याऊँ । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ।
मोहान्धकार से पीड़ित हो भव वन में दख भरपुर सहा । ।
औ राग - द्वेष की धूप छांव से व्याकुल हो चकचूर रहा । ।
अतएव गुरू यह तम नाशक मैं दीप समर्पित करता हूँ ।
इस सुधा दीप की ज्योति से मैं अन्तर दीप जलाता हूँ । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ।
यह धधक रही दुख की ज्वाला धरती नभ त्रस्त रहा जिससे ।
बेहोश पड़े संसारी जन कर्मों को करते नित जिससे । ।
इस कर्म पुंज के नाश हेतु चरणों में धूप जलाता हूँ ।
जड़कर्म सभी जल जाए मेरे यह भाव हृदय में लाया हूँ । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जिसको निज कहकर अपनाया वह स्वार्थ पूर्ण कर दूर खड़ा ।
मैं राग - द्वेष कर आतम को संसार मार्ग पर घमा रहा । ।
निज रूप न अब तक समझ सका पूजा का जो अन्तिम फल था ।
जिस मोक्ष सुफल को पाने का यह शभ प्रतीक तरू का फल था । ।
अत एव तुम्हारे चरणों में अर्पित करता हूँ मैं यह फल ।
हे सुधासिन्धु वह शाश्वत फल मिल जावे हो जिससे सब हल । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल चन्दन अक्षत पुष्प मिला , नैवेद्य दीप ले गण गाऊँ ।
कर्मों की धूप बनाकर मैं उस सिद्ध महाफल को पाऊँ । ।
यह अर्घ्य चढ़ाकर हे मुनिवर मैं अर्घ्य रहित सुख पाऊँगा ।
उस मूल्य रहित अक्षय पद को पाकर निज को ही ध्याऊँगा । ।
यह अर्घ्य मुनि क्षण शील रहा निज गुण का अर्घ्य बनाऊँगा ।
तेरे समान ही बनकर के मैं सुधा - सिन्धु बन जाऊँगा । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला दोहा -
रत्नत्रय के रूप हो विद्या गुरू के पूत ।
भव सागर से तार दो होवें शिव के भूप । ।
पद्धरि मुनिराज तुम्हारी पूजन से संकट दल सब टल जाते हैं ।
इसलिए समर्पित जयमाला , चरणों में तुम्हें चढ़ाते हैं । ।
बनकर के राही शिवपथ के हमको भी राह दिखाते हो ।
जिनवाणी के प्रस्तोता बन , आगम से सृष्टी बनाते हो । । ।
अब तक भटके हे हे मुनिवर , विषयों में समय गंवाया है ।
नर जन्म महा दुर्लभ मिलना , जिसको क्षण - क्षण ठकराया है । ।
हे मुनिवर शिवपथ पर चलकर तुमने जो रूप संवारा है । ।
यह तीन लोक में अनुपम है , और अन्य न सुख का दाता है । ।
इसलिए किरण बनकर मुनिवर हम सबको सदा जगाया है ।
जिनवाणी के कदमों पर चल , मुक्ति का मार्ग दिखाया है । ।
तुम सचमुच ही अमृत लेकर , विष वमन कराने आये हो ।
है जीर्ण रोग मम अस्थि में , जिसकी औषध तुम लाये हो । ।
पाकर के विद्या गुरूवर को , तुम विद्या भानु कहलाये ।
है भाग्य सभी हम भव्यों का , जो ऐसे मुनिवर हम पाये । ।
इनकी तो महिमा है न्यारी , जीवन पुस्तक जो सदा खुली ।
जब चाहो सभी पीयूष पियो , हर लो तुम दुख जो अतिभारी । ।
यह भाव भक्ति है , कीर्तन है , शब्दों को जोड़ बनाया है ।
निज अन्तर तम को वीणा से , बिन छन्दों के ही गाया है । ।
हे सुधा - सिन्धु । हे तपोपूत , चरणों में मेरा हो प्रणाम ।
बस चन्द्र सूर्य की राहों पर , शाश्वत विचरो बनकर महान् । ।
ॐ ह्रः श्रीसुधासागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा - गुण गाऊँ उस ज्ञान के , सागर जिनके पास ।
भव सागर को तैर के , पाऊँ पूर्ण प्रकाश । । । ।
इत्याशीर्वादः । ।
महार्घ मैं देव श्री अरहंत पूज , सिद्ध पूजूं चाव सों ।
आचार्य श्री उबझाय पूजूं , साथु पूजू भाव सों । ।
अर्हन्त भाषित बैन पूज , द्वादशांग रचे गनी ।
पूर्जे दिगम्बर गुरुचरण , शिवहेत सब आशा हनी । ।
सर्वज्ञ भाषित धर्म दशविधि , दयामय पूजें सदा ।
जर्जु भावना षोडश रत्नत्रय , जा बिना शिव नहि कदा । ।
त्रैलोक्य के कृत्रिम , अकृत्रिम , चैत्य चैत्यालय जजूं ।
पनमेरु - नन्दीश्वर जिनालय , खचर सुर - पूजित भजूं । ।
कैलाशश्री सम्मेदश्री , गिरनारगिरि पूजें सदा ।
चम्पापुरी पावापुरी पुनि , और तीरथ सर्वदा । ।
चौबीस श्री जिनराज पूजें , बीस क्षेत्र विदेह के ।
नामावली इक सहसवसु जपि होय पति शिवगेह के । ।
दोहा जल गंधाक्षत पुष्प चरु , दीप धूप फल लाय ।
सर्व पूज्य पद पूज हैं , बहु विधि भक्ति बढ़ाया । ।
ॐ ह्रीं भावपूजाभाववंदना , त्रिकाल पूजा , त्रिकाल - वंदना , करै करावै , भावना भावै , श्री अरिहन्तजी , सिद्धजी , आचार्यजी , उपाध्यायजी , सर्वसाधुजी , पञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः , प्रथमानुयोग करणानुयोग - चरणानुयोग - द्रव्यानुयोगेभ्यो नमः । ।
दर्शनविशद्ध यादि षोडशकार णो भ्यो नमः । ।
उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मेभ्यो नमः ।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः ।
जल के विषै , थल के विषै , आकाश के विषै , गुफा के विषै , पहाड़ के विष , नगरनगरी विषै , ऊर्ध्वलोक , मध्यलोक , पाताललोक विषै विराजमान कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालय - जिनविम्बेभ्यो नमः ।
विदेहक्षेत्रे विद्यमान - विंशतितीर्थकरेभ्यो नमः ।
पाँच भरत , पाँच ऐरावत दशक्षेत्र सम्बन्धी तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनबिम्बेभ्यो नमः ।
नन्दीश्वर - द्वीपसम्बन्धी बावन जिनचैत्यालयेभ्यो नमः । पञ्चमेरुसम्बन्धी अस्सी जिनचैत्यालयेभ्यो नमः । सम्मेदशिखर , कैलाश , चम्पापुर , पावापुर , गिरनार , सोनागिरी , राजगृही , शुत्रुजय , तारंङ्गा , मथुरा आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः । जैनबिदी , मूडबिद्री , हस्तिनापुर , चन्देरी , पपौरा , अयोध्या , चमत्कारजी , महावीरजी , पदमपुरीजी , तिजारा , सांगानेर आदि अतिशयक्षेत्रेभ्यो नमः श्रीचारणऋद्धिधारी सप्तपरमर्षिभ्यो नमः । ।
ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपा - लसन्तं श्रीवृषभादिमहावीरपर्यन्त चतुर्विशतितीर्थगरपरमदेवम् आद्यानाम् आद्ये जम्बद्रीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे . . . नाम्नि नगरे मासानामुत्तमे . . . . . . मासे . . . . . . शुभपक्षे . . . . . . तिथौ . . . . . . वासरे मुन्यार्यिकाणांश्रावक - श्राविकाणां सकलकर्मक्षयार्थ अनर्घ्यपदप्राप्तये सम्पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ।