कर्मों की आँख - मिचौनी
' उस बेचारी का क्या हाल हो रहा होगा ? कहाँ तो यह चकवी एक रात के पति वियोग में इतनी परेशान , इतनी दु : खी और उसे तो मैंने पूरे 22 वर्ष से छोड़ रखा है , उस पर क्या बीतती होगी ? ' इस प्रकार सोच में डबा पवनञ्जय छटपटा रहा था . क्या करूँ . क्या न करूँ ? बस झट बुलाया मित्र प्रहस्त को और उगल दी अपने मन की सब व्यथा । निश्चित किया गया कि फौरन अंजना के महलों में चलें और उससे मिलें । दोनों उड़े विमान में परन्तु गुप्त रूप से , क्योंकि बदनाम होने का डर जो था । द्वार खटखटाया , पवनञ्जय कमरे में और प्रहस्त बाहर पहरेदारी पर । पूरी रात अंजना के साथ बिताई , गिले शिकवे हुए । अंजना ने तो बस यही पूछा कि मेरा अपराध क्या था जो आपने मुझे इतना कड़ा दंड दिया । हमारे विवाह के तीन दिन बाकी थे , मैं तुम्हें देखने के लिए गुप्त रूप से तुम्हारे महल में गया , सखियों के बीच तुम बैठी थी , तुम्हारी एक सखी मिश्रकेशी ने तुमसे मेरे मुकाबले विद्युतप्रभ की प्रशंसा की और तुम चुपचाप उसे सुनती रही , कोई प्रतीकार नहीं किया । उसी समय मैंने निर्णय कर लिया था कि मैं तुम्हारे साथ विवाह ही नहीं करूगाँ । माता - पिता की आज्ञा के कारण विवाह तो करना पड़ा , परन्तु निश्चय कर लिया कि तुमसे बोलूँगा नहीं । ' खैर , पूरी रात्रि हँसी - विनोद में कटी और प्रातः होने से पहले ही वह गुप्त रूप से वापस लौट चले । शुभ कर्म का उदय आया तो , पर साथ में लाया अशुभ को भी । अंजना ने जब कहा कि हो सकता है कि मुझे गर्भ रह जाये तो पवनञ्जय ने अपनी अंगूठी निशानी के लिए उसे दे दी ।
बस वह एक रात का सुख अंजना पर गजब ढा गया । सास केतुमती ने जब देखा कि बहू तो गर्भवती है , उस पर शंका की , लांछन लगाया , ससुर प्रहलाद भी अपनी प्रतिष्ठा को दाँव पर लगे देख बहू के प्रति कठोर बन गए । सारथी को बुलाया और बसंतमाला के साथ । अंजना को घर से निकाल दिया और भयानक जंगल में छुड़वा दिया । दुःखी अंजना ने अपने पिता राजा महेन्द्र का द्वार भी खटखटाया , परंतु अशुभ कर्म के आने पर अपने भी पराए हो जाते हैं , छाया भी अपना साथ छोड़ देती है । माँ , वह माँ जो ममता की प्रतिमूर्ति होती है , उसने भी उसे कलंकिनी समझकर उससे मुँह फेर लिया । गर्भ के भार से दु : खी अनेकों कष्ट सहती अंजना के शुभ कर्म का उदय आया , अंजना ने पुत्र को जन्म दिया जिसके विषय में अवधिज्ञानी मुनिराज के द्वारा पता चल गया था कि पुत्र उत्पन्न होगा और वह भी कोई ऐसा वैसा नहीं , चरमशरीरी उसी भव से मोक्ष जाने वाला होगा । मुनिराज से जब उसने पूछा था कि मुझे 22 वर्ष का पति वियोग क्यों हुआ तो उसे बताया गया था कि उसने पिछले भव में सौत से नाराज होकर 22 पल के लिए जिनेन्द्र देव की प्रतिमा को उसके मन्दिर से हटा दिया था । अपने किए कर्मों का ही फल समझकर अंजना आए सभी कष्टों को सहर्ष सहन कर रही थी । एक दिन हनुरुद्वीप का राजा प्रतिसूर्य जो अंजना का मामा था , वहाँ आ निकला और अंजना . बसंतमाला और बालक को विमान में बैठाकर चल पड़ा । सोचा था अब अंजना के कष्टों का अन्त आ गया , परंतु अशुभ कर्म ने फिर एक दृश्य दिखाया । हँसते - हँसते सब विमान से जा रहे थे , अंजना चिल्लाई हैं . यह क्या ? देखा , बालक उछला और धड़ाम से नीचे शिला पर अंजना इस आकस्मिक आपदा से घबरा उठी , बेहोश हो गई सोचने लगी कि अभी भी दुष्कर्मों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा ।
होश आया , विमान नीचे उतरा , सबने देखा , देखते रह गए । अरे ! बालक तो आराम से पड़ा अंगूठा चूस रहा है और शिला के टुकड़े - टुकड़े हो गए हैं । अंजना के दम में दम आया , आश्वस्त हुई , आँस पोंछे और सोचने लगी - ' क्या आँख मिचौनी खेल रहा है यह कर्म मेरे साथ ' ? व युद्ध से पवनञ्जय लौटे , देखा घर में अंजना नहीं । पूछताछ की और जब सुना कि निर्दोष होते हुए भी घर से निकाल दी गई है तो उल्टे पैर लौट गए , अंजना की खोज में । ढूँढते - ढूँढते पहुँच गए हनुरुद्वीप , अंजना से मिले , पुत्र हनुमान को प्यार किया , दुलार किया और अंजना के साथ सुख से रहने लगे । देखा ! अंजना कभी सुखी , कभी दु : खी । परंतु सुख में अति हर्ष नहीं , दु : ख में अति दुःख नहीं । किसी पर दोषारोपण नहीं । बस एक ही विचार - " तै कर्म पूरब किए खोटे सहे क्यों नहीं जियरा । ' क्या हम पर भी , दु : ख आ जाएँ तो यही सोचकर धैर्य धारण नहीं करेंगे ?
| मित्र अरि हो जायें जगत में अशुभ कर्म के आने से ।