पाठ - 2
दर्शन - पाठ
दर्शनं देवदेवस्य , दर्शनं पापनाशनम् ।
दर्शनं स्वर्गसोपानं , दर्शनं मोक्षसाधनम् । । 1 । ।
अर्थ - देवाधिदेव जिनेन्द्र देव का दर्शन पापों का नाश करने वाला है , स्वर्ग जाने के लिये सीढ़ी के समान तथा मोक्ष का साधन है ।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां , साधूनां वन्दनेन च ।
मन चिरं तिष्ठति पापं , छिब्रहस्ते यथोदकम् ॥ 2 ॥
अर्थ - जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने से तथा साधुओं की वंदना करने से , पाप बहुत समय तक नहीं ठहरते । जैसे - छिद्र होने से हाथ में पानी नहीं ठहरता ।
वीतराग मुखं दृष्ट्वा , पदमरागसमप्रभम् ।
जन्मजन्मकृतं पापं , दर्शनेन विनश्यति ॥ 3 ॥
अर्थ - पद्यरागमणि के समान शोभनोक श्री वीतराग भगवान का दर्शन करने से अनेक जन्मों के किये हुए पाप नाश हो जाते हैं ।
दर्शनं जिनसूर्यस्य , संसारध्यान्तनाशनम् ।
बोधनं चित्तपदास्य , समस्तार्थप्रकाशनम् ॥ 4 ॥
अर्थ - सूर्य के समान जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से , संसार रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है , चित्तरूपी कमल खिलता है और सर्वपदार्थ प्रकाश में आते हैं अर्थात जाने जाते हैं ।
दर्शनं जिनचन्द्रस्य , सद्धर्मामृत - वर्षणम् ।
जन्म - दाह - विनाशाय , वर्धनं सुख - वारिधेः । । 5 । ।
अर्थ - चन्द्रमा के समान श्री जिनेन्द्र देव का दर्शन करने से सत्यधर्म रूपी अमृत की वर्षा होती है , संसार । के दुःखों का नाश होता है और सुख रूपी समुद्र की वृद्धि होती है ।
जीवादितत्त्वप्रतिपादकाय , सम्यक्त्वमुख्याष्टगुणार्णवाय ।
प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय , देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ 6 ॥
अर्थ - ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव को नमस्कार हो । जो जीवादि सप्त तत्वों के बताने वाले , सम्यकच आदि । आठ गुणों के समुद्र , शांतरूप तथा दिगम्बर हैं ।
चिदानन्दैक - रूपाय , जिनाय परमात्मने ।
परमात्मप्रकाशाय , नित्य सिद्धात्मने नमः । । 7 । ।
अर्थ - जो ज्ञानानंद एक स्वरूप वाले हैं , अष्टकमाँ को जीतने वाले है , परमात्म स्वरूप हैं , ऐसे सिद्ध आत्मा को अपने परमात्म स्वरूप के प्रकाशित होने के लिए नित्य नमस्कार हो ।
अन्यथा शरणं नास्ति , त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात्कारुण्यभावेन , रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ 8 ॥
अर्थ - आपको शरण के अलावा संसार में मेरे लिए कोई शरण नहीं है , आप ही शरण हैं , इसलिए करुणाभाव करके . हे जिनेन्द्रदेव । भगवान् । हमारी रक्षा करो , रक्षा करो ।
नहि त्राता नहि त्राता , नहि जाता जगत्त्रये ।
वीतरागात्परो देवो , न भूतो न भविष्यति ॥ 9 ॥
अर्थ - तीनों लोकों में कोई अपना रक्षक नहीं है , रक्षक नहीं है , रक्षक नहीं है ( यदि कोई रक्षक है तो वे बोतराग देव आप हो हैं ) क्योंकि आपसे बड़ान तो कोई देव हुआ है और न ही भविष्य में कभी होगा ।
जिनेभक्ति जिनेभक्ति , जिनेभक्ति - दिनेदिने ।
सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु , सदामेऽस्तु भवे भवे । । 10 । ।
अर्थ - यह आकांक्षा करता हूँ कि जिनेन्द्र भगवान् के प्रति मेरी भक्ति प्रतिदिन और प्रत्येक भव में बनो रहे ।
जिनधर्मविनिमुक्ता , मा भवेच्चक्रवपि ।
होमस्याच्चेट्रोऽपि दरिद्रोऽपि , जिनधर्मानुवासितः । । 11 ॥
अर्थ - जिनधर्म रहित चक्रवर्ती होना भी अच्छा नहीं है , जिनधर्म धारी , दास तथा दरिद्री हो तो भी अच्छा है ।
जन्मजन्मकृतं पापं , जन्मकोटिमुपार्जितम् ।
जन्ममृत्यु - जरा - रोगं , हन्यते जिन - दर्शनात् । । 12 ॥
अर्थ - जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन से करोड़ों जन्मों के एकत्रित हुये पाप तथा जन्म , बुडापा , मृत्यु एवं रोग अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं ।
अद्या - भवत् सफलता नयन द्वयस्य , देव त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन ।
अद्य त्रिलोकतिलक प्रतिभासते मे , संसार वारिधिरयं चुलुक प्रमाणः । । 13 । ।
अर्थ - हे देवाधिदेव । आपके कल्याणकारी चरण कमलों के दर्शन से मेरे दोनों नेत्र आज सफल हुए । हे तीनों लोकों के तिलक स्वरूप आपके प्रताप से , मेरा संसार रूपी समद हाथ में लिये गये भर पानी के समान प्रतीत होता है , अर्थात आपके प्रताप से सहज ही संसार समुद्र से पार हो जाऊँगा ।