भेद - विज्ञान
जिनवाणी अर्थात सच्चे दिगम्बर जैन शास्त्रों का अध्ययन करके और उनका बार - बार चिंतन करके ऐसा पक्का दृढ़ विश्वास बनाना कि1 . जो जन्म - मरण आदि 18 दोषों से रहित होने से वीतरागी हैं , समस्त द्रव्यों की अनंत पर्यायों को जानने से सर्वज्ञ हैं , सच्चे आत्मकल्याण का उपदेश देने वाले होने से हितोपदेशी हैं , ऐसे तीन गुणों से सहित जो अरिहंत भगवान् । हैं वे ही सच्चे देव हैं , इनके अलावा अन्य कोई सच्चा देव नहीं है ।
2 . दिगम्बर जैन वीतरागी साधुओं द्वारा लिखे गये शास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं इनके अलावा अन्य शास्त्र सच्चे शास्त्र नहीं हैं ।
3 . पंचेन्द्रियों के विषयों से दूर रहने वाले , समस्त हिंसाजनित कार्यों से रहित , समस्त परिग्रह से रहित , ज्ञान , ध्यान तथा तप में लीन रहने वाले ऐसे रागद्वेष से रहित दिगम्बर जैन निग्रंथ मुनि ही सच्चे गुरु है , अन्य गुरु सच्चे गुरु नहीं
4 . आस्रव और बंध का सच्चा स्वरूप जानकर ये तो हेय हैं , तथा संवर और निर्जरा का स्वरूप जानकर , ये उपादेय हैं तथा कर्म से रहित आत्मा का जो स्वरूप है वही मेरी आत्मा का सच्चा स्वरूप है ।
5 . मेरी जो ये मनुष्य पर्याय है , इसमें आत्मा और शरीर दो द्रव्य मिले हुये हैं । जो दिखाई पड़ता है , वह तो शरीर है और इसमें जो शक्ति रूप से जानने - देखने रूप कार्य को करने वाला है , वह आत्मा है । जब आत्मा शरीर से पृथक् हो जाता है तो मात्र शरीर रह जाता है , जिसे हम मृत शरीर कहते हैं ।
6 . आत्मा की दो पर्याय होती हैं - शुद्ध पर्याय अर्थात् मुक्त या सिद्ध पर्याय तथा अशुद्ध पर्याय अर्थात् संसारी जीव की पर्याय ।
7 . मेरी वर्तमान मनुष्य पर्याय अशुद्ध पर्याय है । मेरी आत्मा द्रव्यकर्म , भावकर्म और नोकर्म लगे होने से अशुद्ध है । आत्मा के साथ जो पुद्गल कर्म चिपके हुये हैं , वे तो द्रव्यकर्म हैं । आत्मा में जो राग - द्वेष - क्रोध आदि विकारी । परिणाम होते हैं , वे भावकर्म हैं और शरीर आदि नोकर्म हैं । मैं आत्मा स्वभाव से तो सिद्ध भगवान् जैसा अनन्त । ज्ञान - दर्शन शक्ति वाला द्रव्य हूँ लेकिन वर्तमान संसारी पर्याय में उपरोक्त तीन कर्मों से सहित होता हुआ , ससार । में भटक रहा हूँ ।
8 . यद्यपि मैं जानने - देखने अर्थात् चेतना वाला जीव द्रव्य है फिर भी अज्ञानवश अपने स्वरूप को न पहचान जिस - जिस शरीर को प्राप्त करता हूँ उसी को अपना स्वरूप मान लेता है , यह मेरी महान् भूल है आर । मैं संसार में भटक रहा हूँ ।
9. कर्म के फलस्वरूप मुझे सुख - दु : ख रूप जो भी अच्छी या बुरी वस्तुओं का संयोग प्राप्त होता है , मैं उन रूप होकर अपने को सुखी - दु : खी मानने लगता हैं , जबकि मेरा स्वभाव तो अनंत सुख वाला है और इसी भूल के कारण मैं भटक रहा हूँ ।
10 . मैंने अपने को दूसरे का सुख - दुःख देने वाला मान रखा है । दूसरे को सख - दुःख वास्तव में उसके अपने कर्मों के उदयानुसार होता है , परन्तु मैं अपने अज्ञान से अपने को अन्य के सुख - दुःख का कर्ता मानता है । यह मेरी । महान् भूल है और इसी भूल के कारण संसार में भटक रहा हूँ ।
11 . संसार का कोई भी पदार्थ अच्छा या बुरा नहीं है । मैं अपनी कषायों के अनुसार उनमें अच्छे बुरे की कल्पना कर लेता हूँ । मुझे वस्तु के स्वरूप को जानकर ऐसी भूल नहीं करना चाहिए । यही भूल मेरे संसार भ्रमण का कारण है ।
12 . उपरोक्त सच्चे देव , शास्त्र , गुरु का श्रद्धान करता हुआ , सात तत्त्व का श्रद्धान करता हुआ , अज्ञान बुद्धि को समझता हुआ , मैं इस निर्णय पर पहुँचता हूँ कि इस शरीर में मौजूद अनन्त ज्ञान , दर्शन , शक्ति तथा सुख स्वभाव वाला ऐसा मैं आत्मा हूँ । द्रव्यकर्म , भावकर्म तथा शरीरादि नोकर्म न तो मेरे हैं , न मेरे थे और न मेरे होंगे । मैं भी इनका नहीं है , कभी इनका नहीं था और कभी इनका नहीं होऊँगा । ये सब मुझसे एकदम भिन्न हैं , और मैं चैतन्य आत्मा इन सबसे भिन्न हूँ । अब मैं इन सबको अपने से भिन्न मानता हुआ अपने शद्ध स्वभाव का निर्णय करता
उपरोक्त प्रकार से अपने स्वरूप का और अपने से भिन्न समस्त अन्य द्रव्यों के स्वभाव का निर्णय करते हुये अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान व निर्णय करना भेदविज्ञान है ।
अभ्यास प्रश्न
1 . भेदविज्ञान किसे कहते हैं ?2 . संसार भ्रमण की कोई दो भूलें लिखिए ।
3 . आस्रव और बंध को जानकर क्या करना चाहिए ?