भावना द्वात्रिंशतिका ग्रंथ के लेखक कौन हैं?
| |
|---|
| आचार्य अमृतचंद्र | 43 |
| आचार्य अमितसेन | 24 |
| आचार्य अमितगति | 162 |
| |
|---|
| प्राकृत | 40 |
| संस्कृत | 157 |
| दोनों सही | 37 |
| |
|---|
| ज्ञान की प्राप्ति | 157 |
| ध्यान की प्राप्ति | 12 |
| रत्नत्रय | 68 |
| |
|---|
| देव शास्त्र गुरु के द्वारा | 2 |
| अन्य प्राणियों के द्वारा | 4 |
| स्वयं के द्वारा | 230 |
| |
|---|
| सभी सुखी हो जाएंगे | 12 |
| हम सबको सुखी बना देंगे | 12 |
| अपने किए हुए कर्म व्यर्थ हो जाएंगे | 212 |
| विरोधी के प्रति | गुणी जन के प्रति | दीन दुखियों के प्रति | प्राणी मात्र के प्रति |
|---|
| मैत्री भाव | 22 | 32 | 6 | 174 |
| प्रमोद भाव | 12 | 191 | 13 | 17 |
| करुणा भाव | 10 | 4 | 201 | 19 |
| मध्यस्थ भाव | 199 | 11 | 6 | 16 |
| |
|---|
| दो प्रकार से | 113 |
| तीन प्रकार से | 79 |
| चार प्रकार से | 38 |
| |
|---|
| लोक पूजा | 2 |
| मुनि संघ में रहना | 100 |
| उचित आसन | 19 |
| इनमे से कोई नहीं | 115 |
| |
|---|
| कल्पवृक्ष के समान | 38 |
| चिंतामणि के समान | 153 |
| पारस मणि के समान | 43 |
| |
|---|
| जिनेन्द्र भगवान ने | 50 |
| कामदेव ने | 37 |
| राग आदि ने | 149 |
| मिला दिये | घायल कर दिये | दबा दिये | पृथक कर दिये |
|---|
| क्षता: | 14 | 125 | 73 | 16 |
| विभिन्ना: | 10 | 6 | 13 | 201 |
| मिलिता: | 213 | 6 | 7 | 1 |
| निपीड़िता: | 7 | 98 | 111 | 8 |
| |
|---|
| किसी के द्वारा नहीं | 24 |
| योगीजन के द्वारा | 150 |
| केवल परमात्मा के द्वारा | 61 |
| |
|---|
| सब मुनिराजों के समूह द्वारा | 26 |
| वेद व पुराण द्वारा | 46 |
| सब सुरों व नरो के इन्द्र द्वारा | 163 |
| |
|---|
| मात्रा के रूप मे | 8 |
| पद के रूप मे | 3 |
| अर्थ व वाक्य के रूप मे | 9 |
| उपर्युक्त सभी | 214 |
| खुदे हुए से | घुले हुए से | प्रतिबिंब की तरह | प्रतिमा की तरह |
|---|
| लीनौ | 27 | 143 | 12 | 34 |
| कीलितौ | 108 | 24 | 18 | 72 |
| निखातौ | 86 | 42 | 34 | 58 |
| बिम्बितौ | 7 | 5 | 169 | 46 |
| |
|---|
| कण कण मे विद्यमान होने के कारण | 30 |
| सर्वज्ञ होने के कारण | 149 |
| विश्व कल्याण की वृत्ती होने के कारण | 58 |
| |
|---|
| राग-द्वेष के | 42 |
| चर्म के | 163 |
| रोमावली के | 31 |
| |
|---|
| वन में | 25 |
| मंदिर में | 9 |
| कहीं पर भी | 200 |
| |
|---|
| पुत्र-कलत्र-मित्र से | 5 |
| शरीर से | 33 |
| परमात्मा से | 108 |
| किसी से नहीं | 90 |
| अतीचार कहते | अतिक्रमण कहते | व्यतिक्रमण कहते | अनाचार कहते |
|---|
| चित्त शुद्धि की विधि की क्षति को | 79 | 97 | 36 | 9 |
| विषयासक्तपने को जग में | 49 | 66 | 43 | 61 |
| शील बाढ़ के उल्लंघन को | 37 | 54 | 101 | 34 |
| त्यक्त विषय के सेवन को प्रभु | 100 | 21 | 46 | 54 |
| |
|---|
| बोधि व समाधि की | 7 |
| परिणाम विशुद्धि की | 5 |
| आतमोपलब्धि व मोक्ष की | 10 |
| उपर्युक्त सभी | 215 |
| |
|---|
| रत्नत्रय को | 33 |
| ध्यान को | 80 |
| मरण को | 122 |
| |
|---|
| हर्षित हो | 12 |
| खिन्न हो | 24 |
| समान हो | 199 |
| |
|---|
| जगदंतरालं | 41 |
| भव-दु:ख-जालं | 149 |
| विकलोSकलंक: | 34 |
| बोधि: समाधि: परिणामशुद्धि: | चिन्ताशमणिं चिन्तितवस्तुिदाने | त्वांय वन्द्यपमानस्या ममास्तुि देवि! | स्वांत्मोसपलब्धि: शिवसौख्यतसिद्धि: |
|---|
| प्रथम चरण | 179 | 20 | 19 | 4 |
| द्वितीय चरण | 18 | 56 | 15 | 108 |
| तृतीय चरण | 29 | 147 | 32 | 10 |
| चतुर्थ चरण | 24 | 12 | 143 | 33 |
| |
|---|
| संयोग के कारण | 145 |
| वियोग के कारण | 83 |
| शीत व ग्रीष्म के कारण | 5 |
| |
|---|
| शाश्वत | 25 |
| स्वकीय | 43 |
| कर्मजन्य | 167 |
| |
|---|
| कषाय के | 33 |
| इंद्रिय के | 21 |
| दोनों के | 180 |
| |
|---|
| अतिक्रम | 4 |
| व्यतिक्रम | 3 |
| प्रतिक्रम | 174 |
| उपर्युक्त सभी | 53 |
| |
|---|
| मंत्र शक्ति से | 118 |
| औषधि से | 81 |
| योग से | 36 |
| |
|---|
| कर्म से | 30 |
| राग द्वेष से | 2 |
| दोनों से | 4 |
| किसी से भी नहीं | 198 |
| |
|---|
| परमात्म-गीतिका | 30 |
| परमात्म-द्वात्रिंशती | 109 |
| दोनों सही | 92 |
| पत्थर | आसन | पाटा | पृथ्वी |
|---|
| संस्तर: | 50 | 122 | 30 | 18 |
| अश्मा | 106 | 60 | 27 | 23 |
| मेदिनी | 26 | 15 | 40 | 136 |
| फ़लक: | 36 | 30 | 116 | 35 |
| |
|---|
| अव्यय पद को | 206 |
| व्यय पद को | 19 |
| संसार को | 7 |