रेवती रानी
विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी सम्बन्धी मेघकूट नगर का राजा चन्द्रप्रभ , अपने चन्द्रशेखर पुत्र के लिय राज्य देकर परोपकार तथा वन्दना - भक्ति के लिये कुछ विद्याओं को धारण करता हुआ दक्षिण मथुरा गया और वहाँ गुप्ताचार्य के समीप क्षुल्लक हो गया । एक समय वह शुल्लक , वन्दना - भक्ति के लिये उत्तर मथुरा की और जाने लगा । जाते समय उसने गुप्ताचार्य से पूछा कि क्या किसी से कछ कहना है ? गुप्ताचार्य ने कहा कि सुव्रत । मुनि को वन्दना और वरुण - राजा की महारानी रेवती के लिये आशीर्वाद कहने के योग्य है । क्षुल्लक ने तीन बार । पूछा फिर भी उन्होंने इतना ही कहा । तदनन्तर क्षुल्लक ने विचार किया कि वहाँ ग्यारह अंग के धारक भव्यसेनाचार्य तथा अन्य धर्मात्मा लोग भी रहते हैं , जिनका इन्होंने नाम भी नहीं लिया है । इसमें कुछ कारण अवश्य होगा ऐसा विचारते हुए क्षुल्लक उत्तर मथुरा चला गया । वहाँ जाकर उसने सुव्रत मुनि के लिए गुप्ताचार्य की वन्दना कही । सुव्रत मुनि ने परम वात्सल्य भाव दिखलाया । वह उनके दर्शन कर भव्यसेन की वसतिका में गया । क्षुल्लक के वहाँ पहुँचने पर भव्यसेन ने उससे संभाषण भी नहीं किया । भव्यसेन शौच के लिये बाहर जा रहे थे सो क्षुल्लक उनका कमण्डलु लेकर उनके साथ बाह्य भूमि में गया और विक्रिया से उसने आगे ऐसा मार्ग दिखाया जो कि हरे - हरे कोमल तृणों के अंकुरों से आच्छादित था । उस मार्ग को देखकर क्षुल्लक ने कहा भी कि आगम में ये सब जीव कहे गये हैं । भव्यसेन आगम पर अरुचि - अश्रद्धा दिखाते हुये तृणों पर चले गये । क्षुल्लक ने फिर विक्रिया से कमण्डलु का पानी सुखा दिया । जब शुद्धि का समय आया तब कमण्डलु में पानी नहीं है तथा कहीं कोई विक्रिया भी नहीं दिखाई देती है यह देख वे आश्चर्य में पड़ गये । तदनन्तर उन्होंने स्वच्छ सरोवर के जल और उत्तम मिट्टी से शुद्धि की । इन सब क्रियाओं से उन्हें मिथ्यादृष्टि जानकर क्षुल्लक ने भव्यसेन का अभव्यसेन नाम रख दिया । तदनन्तर क्षुल्लक ने दूसरे दिन पूर्व दिशा में पद्मासन पर स्थित , चारमुखों से सहित , यज्ञोपवीत आदि से युक्त तथा देव और दानवों से वन्दित ब्रह्मा का रूप दिखाया । राजा तथा भव्यसेन आदि लोग वहाँ गये परन्तु रेवती रानी लोगों से प्रेरित होने पर भी नहीं गई । वह यही कहती रही कि यह ब्रह्मा नाम का देव कौन है ? इसी प्रकार फिर उन क्षुल्लक ने दक्षिण दिशा में गरुड़ के ऊपर आरूढ़ , चार भुजाओं से सहित तथा गदा , शंख आदि के धारक नारायण का रूप दिखाया । पश्चिम दिशा में बैल पर आरूढ़ तथा अर्ध चन्द्र , जटाजूट , पार्वती और गणों से सहित शंकर का रूप दिखाया परन्तु रेवती रानी फिर भी वहाँ नहीं गई । तब अन्त में उन क्षुल्लक ने उत्तर दिशा में समवशरण के मध्य में आठ प्रातिहार्यों से सहित , सुर , नर , विद्याधर और मुनियों के समूह से वन्द्यमान , पर्यकासन से स्थित तीर्थकर भगवान् का रूप बनाया । वहाँ सब लोग गये , परन्तु रेवती रानी लोगों के द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी नहीं गई । वह यही कहती रही कि नारायण नौ ही होते हैं , रुद्र ग्यारह ही होते हैं और तीर्थकर चौबीस ही होते हैं ऐसा जिनागम में कहा गया है । और वे सब हो चुके हैं , यह तो कोई मायावी है ।
अगले दिन चयों के समय उसने एक ऐसे क्षल्लक का रूप बनाया , जिसका शरीर बीमारी से क्षीण । हो गया था । वह रवती रानी के घर के समीपवर्ती मार्ग में मायामयी मॉ से गिर गया । रेवती रानी ने जब यह समाचार सुना तब वह भक्तिपूर्वक उठाकर ले गई , उसका उपचार किया और पथ्य कराने के लिए उद्यत । हुई । उस क्षुल्लक ने आहार करने के बाद दुर्गन्ध से युक्त वमन कर दिया । रानी ने वमन को दर करके कहा के हाय मने प्रकृति के विरुद्ध अपथ्य आहार दिया । रेवती रानी के उक्त वचन सुनकर क्षल्लक ने अपनी माया को संकोच कर हर्ष के साथ उसके लिए गुप्ताचार्य का आशीर्वाद कहा और लोगों के बीच उसकी अमुढ़ - दृष्टिता की बहुत प्रशंसा की । यह सब कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया । राजा वरुण , शिवकीर्ति पुत्र के लिये राज्य देकर तथा तप ग्रहण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हआ तथा रेवती रानी भी तप कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई ।
अभ्यास प्रश्न
1 . गुप्ताचार्य ने किन - किन को क्या - क्या आशीर्वाद कहा ?
2 . क्षुल्लक ने उत्तर मथुरा जाकर कौन - कौन से रूप बनाये ?
3 . क्षुल्लक ने विभिन्न रूप बनाए फिर भी रेवती रानी वहाँ क्यों नहीं गई ?
4 . क्षुल्लक ने 11 अंग पाठी भव्यसेन की परीक्षा किस प्रकार ली ?
5 . क्षुल्लक ने आहार के समय क्या किया ?