साधना बिना कहीं कुछ नहीं
' मैंने विद्याध्ययन पूरा कर लिया है , मेरा अन्तिम ध्येय तो सन्यास लेना ही है । कृपया बताइएगा कि पहले गृहस्थाश्रम में रहूँ या सीधा सन्यासी बन जाऊँ ? ' उत्तर में महात्मा कबीर ने केवल इतना ही कहा - " तुम कुछ भी बनो , दोनों में समान साधना की जरूरत है । " युवक की तसल्ली नहीं हुई है , ऐसा समझकर कबीर उसे घर ले गए । सूर्य का प्रकाश पूरे घर में फैला था । ' तुम्हें दीखता नहीं यहाँ कितना अंधकार है , जरा दीपक तो जला दो ' और पत्नी बिना हील - हुज्जत किए दीपक जलाकर चली गई । युवक आँख फाड़े देखता रह गया । फिर कबीर ले गए उसे एक साधु के पास जो रहते थे एक पहाड़ी पर । कबीर ने आवाज लगाई - ' महात्मा जी , हम आपके दर्शन करना चाहते हैं , कृपया जरा नीचे आ जाइएगा । साधु नीचे आए , दर्शन दिए और फिर ऊपर चले गए । पुनः कबीर ने पुकारा - ' महाराज , हमने चरण स्पर्श तो किए ही नहीं । कष्ट तो होगा आपको , कृपया बस एक बार और । और युवक अचम्भे में रह गया , जब उसने देखा साधु महाराज बिना माथे पर शिकन पड़े धैर्य से नीचे उतर आये । इन्होंने चरण स्पर्श किए और साधु जी फिर ऊपर । इसी प्रकार साधु जी को कई बार नीचे बुलाया । वह आए , वही प्रसन्न मुद्रा , न उनके चेहरे पर झुंझलाहट , न मुँह से क्रोध के शब्द । - युवक हतप्रभ हुआ सब कुछ देखता रहा ।
लाद अब कबीर ने युवक को समयायाया गहस्थी बनत हा ता समे ऐसी साधना करो कि परिवार में प्रेम की वह धारा बह चल । ' क्या ? क्यों ? ' का प्रश्न उठाए बिना पत्नी दिन में भी दापक और सन्यासी बनो तो ऐसी साधना करो जिससे कि “ अरि मित्र महल मसान कंचन कांच निन्दन थुति करना अर्घावतारण असि प्रहारन में सदा समता धरना । चेहरे पर . . एक संतुष्टि लिए युवक लौट पड़ा ; क्योंकि अब उसकी समझ में आ गया था साधना का महत्त्व । | जो परमात्मा की ओर मुँह करके बैठा है वह भव्य है और जो परमात्मा को पीठ दिये बैठा है वह अभव्य है ।